प्रासंगिक (२२ अगस्त, १९६८)

 

माताजीकी लिखी हुई एक टिप्पणीके बारेमें

जिसमें उन्होंने उस अग्नि-परीक्षाका जिक्र किया

था जो उनके जीवनके लिये संकटकारी थी ।

 

       डाक्टरने सलाह दी है कि अपने-आपको मत थकाओ । कौन-सी चीज थकाती है? केवल वही जो व्यर्थ हों ।

 

   सच्चे निष्कपट लोगोंसे मिलना, जिन्हें इससे लाभ होता हो, कभी थकानेवाला नहीं होता ।

 

   लेकिन जो सद्धांतों और व्यवहारोंकी नाप-तौल करनेके लिये आते हे जो अपनी बुद्धिके कारण समझते हैं कि वे बहुत श्रेष्ठ हैं ओर सत्य-असत्यमें विवेक करनेमें समर्थ हैं, जो यह मानते है कि वे यह फैसला कर सकते है कि अमुक शिक्षा सत्य है या मिथ्या, कि अमुक व्यवहार परम सद्वस्तुके साथ मेल खाता है या नहीं, वे वास्तवमें थकानेवाले होते है और कम-से- कम इतना तो कहना ही होगा कि उनसे मिलना बेकार होता है ।

 

    उच्चतर बुद्धिकी इन सत्ताओंके अपनी मरज़ी मुताबिक अपने रास्तेपर दौड़ लगाने दो, यह रास्ता हज़ारों वर्षतक चलेगा । सद्भावनावाले सरल लोगोंकी, जो भागवत कृपापर विश्वास करते है, चुपचाप अपने प्रकाशके मार्गपर चलने दो ।

 

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